Monday, 2 September 2013

K P Nakastra Paddhati


कृष्णमूर्ति पद्धति ( नक्षत्र ज्योतिष )
फलित ज्योतिष को विज्ञानं एवं तर्क सम्मत बनाने में स्वर्गीय के . एस कृष्ण मूर्तिजी का
अभूतपूर्व चिरस्मरणीय योगदान है| इस पध्धति में जातक- फलादेश के लिए नक्षत्र और उसके
उप नक्षत्र का उपयोग किया जाता है , उन्होंने अल्प समय के अन्तराल में जन्म लेनेवाले जुड़वां
` बच्चों के भिन्न -भिन्न फल कथन के लिए जिस पद्धति का विकास किया है उसे प्रचलित
भाषा में - के .पी या कृष्ण मूर्ति पद्धति कहा जाता है .| कृष्णमूर्तिजी ने प्रश्न कुंडली में २४९
तक के अंको के आधार पर उप -नक्षत्र निर्धारित कर शत -प्रतिशत सही भविष्य कथन करने का
चमत्कारिक प्रयास किया है | साथ ही उन्होंने भाव परक कारको एवं तात्कालिक ग्रहों (रूलिंग
प्लानेट्स ) के उपयोग को जातक के फलित -कथन में विशेष रूप से महत्त्व दिया है |
इस पद्धति लार्ड में कुंडली निर्माण में भाव. स्पष्ट सेमी आर्क सिस्टम से किये जाते है तथा -
कुंडली मेंस्थित ग्रह की राशी ( स्व , उच्च , नीच , शत्रु क्षेत्री या मित्र क्षेत्री है ) एवं किसभावका
अधिपति होकर किस भाव में स्थित हे देखने के स्थान पर यह देखा जाता है कि- ग्रह किस ग्रह
के नक्षत्र में है एवं उस नक्षत्र का अधिपति ( स्वामी ) किस भाव में स्थित है तथा नक्षत्र अधिपति
किन भावों का स्वामी .है | इसी नियम के आधार पर जातक को फल बताया जाता है | के . पी
. में भावो के कारकत्व को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है |हमारे वर्त्तमान ज्योतिष में राशियों का
सूक्ष्म फल जानने के लिए नवांश का उपयोग किया
जाता है याने एक राशी के समान रूप से ९ भाग किये जाते है | विंशोत्तरी दशा पध्धति में जन्म-
कालीन चंद्रमा के अन्श एक सामान होने पर त्रिकोण गत राशियाँ ( जैसे १ -५-९ ,२-६-१० ३-७-१० ,                                                                                      या ४-८-१२) में नक्षत्र स्वामी एक ही होता जिसे महादशा का स्वामी कहा जाता है और इसके
बाद क्रमानुसार दशा स्वामी होते हैं | कृष्णमूर्ति जी ने अपने नक्षत्र परक अध्ययन में पाया कि
जब एक ही नक्षत्र अथवा एक से दुसरे त्रिकोण में आनेवाली राशियों में स्थित नक्षत्र में एक से
अधिक ग्रह हो तो सबका नक्षत्र स्वामी एकही होते हुए भी उनके फल भिन्न - भिन्न होते हैं |
अतः उन्होंने नक्षत्र का विभाजन अन्तर्दशा के अनुसार किया जैसा की चन्द्रमाँ की दशाओं में
होता है और उन्होंने भिन्न -भिन्न फलों के होने के कारण जाने चाहे वे ग्रह एक ही नक्षत्र या
त्रिकोण नक्षत्र के अंतर्गत हो |इस प्रकार नक्षत्र .को विंशोत्तरी दशा के अनुसार नो भागो में
विभाजित किया गया .और इस विभाजित नक्षत्र के भाग को - उप नक्षत्र (सब लार्ड ) कहा जाताहै |
नक्षत्र का अंशात्मक मान १३ अंश २० कला = ८०० कला
मान लीजिये कि हमें सूर्य का उप नक्षत्र मान जानना है ?
        १२० वर्ष = १३ अंश २० कला == ८०० कला
तो ६ वर्ष ( सूर्य ) ?
८०० * ६/ १२० = ४० कला
इस प्रकार प्रत्येक ग्रह के उप नक्षत्र के अंशात्मक मान निम्नलिखित हैं -
ग्रह महादशा वर्ष उप नक्षत्र का अंशात्मक मान
                  अंश —- कला —  विकला
केतु ७              ०० —- ४६ —-   ४०
शुक्र २०             ०२ —- १३ —–  २०
सूर्य ०६             ०० —  ४० —-   ००
चन्द्र १०             ०१ —  ०६ —-   ४०
मंगल ०७            ०० —  ४६ —   ४०
राहू १८               ०२ —  ०० —    ००  
गुरु १६               ०१ —  ४६ —     ४०
शनि १९              ०२ — ०६ —      ४०
बुध १७               ०१ — ५३ —     २०
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योग १२० —-       १३ — २० —     ००
इस प्रकार २७ नक्षत्रो के २४३ भाग किये गए | परन्तु जब इन भागो को राशी चक्र में रखा
गया तो १/५/ ९ राशियों में , राशियों के ३० अंश पूरे होने के कारण सूर्य नक्षत्र के राहू उप- नक्षत्र
के दो भाग किये गए और शेष भाग २-५-८ राशियों में रखा गया .|
इसी प्रकार ३-७ -११ राशियों में गुरु नक्षत्र के , चन्द्र उप -नक्षत्र के भी २-२ भाग किये गए और
३-७-11 राशियों के ३० अंश पूरे होने के कारण चन्द्र उप- नक्षत्र के शेष भाग को ४-८ -१२ राशियों में
समयोजित किया गया और इस प्रकार राशी चक्र में उप - नक्षत्रो का विभाजन २४३ से बढकर
२४९ हो गया |
यह २४९ अंको की राशी विभाजन की सारणी — के .पी. में फलित कथन में विशेष रूप से उपयोगी
होती हे |
किसी भी घटना को जानने के लिए के . पी .में एक ही नियम है -
घटना से सम्बंधित प्रमुख भाव का उप नक्षत्र स्वामी यदि प्र्रमुख भाव या घटना के लिए सहायक
भाव का कारक बन जाये तो अपेक्षित घटना होगी |
घटना का समय निर्धारण के लिए विंशोत्तरी महादशा को ही देखा जाता है |
घटना होने के लिए - दशा नाथ , अंतर दशानाथ का घटना से सम्बंधित भावो का कारक होना
आवश्यक है , यदि वे नहीं हैं तो घटना नहीं होगी |
फलादेश के आधार - मुख्य भाव एवं सहयोगी भाव एवं विरोधी भाव |
के. पी. में किसी भी घटना के आकलन के लिए मुख्य भाव एवं सहयोगी भावो के नक्षत्रिय तथा
राशी परक संबंधो को मिलाकर फल कथन करने की मौलिक प्रणाली है |
मुख्य भाव — जैसे धन , परिवार - - द्वितीय भाव | लेखन , अनुज — तृतीय भाव | नौकरी —
षष्ठ भाव | विवाह - सप्तम भाव आदि |
सहायक भाव - वे भाव जो घटना के होने पर व्यक्ति के जीवन के अन्य पक्षों में होने वाले
संभावित प्रभावों को बतलाते है |
उदाहरण के लिए — विवाह के माध्यम से हम एक जीवन सहचर पाते है जो शारीरिक सुख भी
देता है | ऐसे सुख को समाज एवं कानून की स्वीकृति होती है | अतः सप्तम स्थान मुख्य भाव है |
विवाह के बाद परिवार में एक सदस्य जीवन साथी के रूप में परिवार का सदस्य बन जाता है |
अतः दूसरा भाव( परिवार ) विवाह घटना का सहायक स्थान है
विवाह के बाद हमारी एक सुख -दुख में जीवन साथी पाने की इच्छा पूरी होती है , एक मित्र पाते है
अतः लाभ स्थान ( मित्र , एवं इच्छा पूर्ती ) विवाह के लिए दूसरा सहायक स्थान है |
अतः हम जब भी विवाह घटना के बारे में जानना चाहेंगे हम ७ -२ ११ भावो से ही निर्णय लेंगे .|
इसी प्रकार नौकरी की सम्भावना के विषय में जानना चाहते हैं तो - षष्ठ भाव( नौकरी , नियमित
उपस्थिति ) मुख्य भाव , का उप नक्षत्र स्वामी– द्वितीय (धन ) , दशम ( कर्म ) एवं एकादश
भाव ( इच्छा पूर्ति ) का कारक बना है या नहीं ही देखेगें .|
अतः के . पी. में जीवन की प्रत्येक घटना के निर्णय के लिए एक निश्चित नियम है | अनेक
नियमो का प्रावधान नहीं होने से ज्योतिषी को दुविधा या संशय की स्थिति नहीं होती .|
प्रतिकूल भाव एवं अशुभ फल —
मानव जीवन पूर्व जन्म के संचि प्रारब्ध एवं जन्मकुंडली में जन्मकालीन ग्रह स्थिति के कारण
वर्तमान जीवन प्रभावित एवं संचालित होता है | अनेक अवसरों पर हमारी इच्छा के अनुरूप
कार्य या घटना होने के बाद भी हम चाह कर भी प्रसन्नता या संतोष का अनुभव नहीं कर पाते ,
क्योंकि अपेक्षित घटनाओ का प्रभाव कई बार प्रतिकूल भी हो जाता है |
किसी भी घटना से प्राप्त सुख या अनुकूलता के संकेत जन्मकुंडली के अष्टम एवं व्यय भाव से
सूचित होते है क्योकि अष्टम एवं व्यय भाव - दुःख व् निराशा , विवशता हताशा के सूचक हैं |
अतः किसी भी घटना के मुख्य एवं सहायक भाव से १२ वा या व्यय भाव घटना के फल में
प्रतिकूलता या अशुभता को सूचित करते है |
अतः विवाह के सन्दर्भ में यदि विचार करे तो ६ - १ -१० भाव प्रतिकूलता या निराशा देते है क्योकि
ये भाव ७ - २ - ११ वे भाव से बारहवे होते है |
जब किसी भाव का उप नक्षत्र स्वामी — घटना से सम्बंधित मुख्य एवं सहायक भावो का कारक हो
और साथ ही यह उप नक्षत्र स्वामी कुंडली के ८ या १२ वे भाव का भी कारक बन जाये या घटना
से सम्बंधित भाव के व्यय स्थान (१२ वे ) भाव का कारक बन जाये तो घटना होने के बाद जातक
को अपेक्षित या संभावित सुख नहीं मिलेगा |
इसलिए यदि जातक के सप्तम भाव का उप नक्षत्र स्वामी , २ , ७ या ११ इनमे से किसी एक का
कारक हो तो विवाह होगा | परन्तु , सप्तम का उप नक्षत्र स्वामी १ ,६ ,८ ,१० या १२ में से किसी एक
भी भाव का कारक हो तो अपेक्षित सुख नहीं मिल पायेगा |
इसी प्रकार पंचम भाव का उप- नक्षत्र स्वामी २ , ५ या ११ वे भाव का कारक हो तो संतान होगी |
परन्तु इन भावो के साथ पंचम का उप- नक्षत्र स्वामी १ ( २ रे का व्यय ) , ४ ( ५वे का व्यय ) ,१०
( ११ वे का व्यय ) , ८ ( निराशा ) या १२ ( १ का व्यय )- इन में से किसी एक का कारक बने तो -
संतान सुख में न्यूनता , गर्भपात , मृत बालक का जन्म , बच्चों से दुरी आदि संभव है |
अतः जीवन की कतिपय घटनाओं के मुख्य / सहायक भावो के साथ प्रतिकूल भावो की तालिका
अवलोकनार्थ दी जा रही है |
घटना प्रमुख एवं सहायक भाव               प्रतिकूल भाव 
विवाह ७ - २ - ११                          ६ - १- १० - १२ - ८
सन्तति ५ - २ - ११                        ४ -१ - १० -८ -१२
शिक्षा ४ - ९ - ११                           ३ - ५ - 8 -१२

शिक्षा ४ - ९ - ११                           ३ -५ - ८ - १२
छात्र वृत्ति ६ - ९ - ११                       ५ - ८ - १२
वाहन खरीदना ४ - ११                       १२ ३ - ८
घर खरीदना ४ - ११ -                       १२ ३ - ८
घर बेचना १० - ५ - ६                      ४ - ८ - ११ - १२
ऋण -प्राप्ति ६ - ११                          ५ - १२
ऋण - मुक्ति १२ - ८                        ६ - ११
विदेश गमन १२ - ३ - ९                    २ - ४ -११
नौकरी ६ - १० - २ -११                      १ -५ - ९ -१२ - ८
स्थानांतर १० - ३ - १२                      ४ - ८
पदोन्नति १० - ६ - २ - ११                 ९ - ५ -८ -१२  
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इस पद्धति की कतिपय विशेषताएं अधोलिखित हैं -
अयनांश — कृष्णमुर्तिजी ने अपने ही अयनांश का उपयोग किया है जिसे के. पी. अयनांश
कहा जाता है जो चित्रा पक्ष अयनांश से ६ कला कम है |
भाव गणना - सामान भाव विभाजन या श्रीपति पध्धति के स्थान पर भाव गणना की जाती है . ग्रह फल निर्णय — प्रत्येक ग्रह अपने नक्षत्र स्वामी का फल देता है तथा फल की शुभता या
अशुभता का निर्णय ग्रह का उप नक्षत्र स्वामी करता है |
भाव के कारक ( सूचक ) ग्रह - भाव कारक ग्रहों के चयन के नियम अधोलिखित हैं —
१- भावस्थ ग्रह के नक्षत्र में स्थित ग्रह |
२ - भावस्थ ग्रह |
३ - भावेश के नक्षत्र में स्थित ग्रह |
४ - भावेश |
५ - भाव पर दृष्टि डालने वाले ग्रह |
६- उपरोक्त ग्रहों को देखने वाले ग्रह |
फल निर्णय - जातक के जीवन की समस्त घटनाओं के फल निर्धारण के . पी . में
मुख्य भाव एवं सहायक भावो की सहायता से किया जाता है |
राहु और केतु - छाया ग्रह होने से अधोलिखित नियमो के अनुसार ग्रहों का प्रतिनिधित्व
करते हैं -
१ - राहू और केतु की युति में स्थित ग्रह |
२ - राहू और केतु पर दृष्टि डालनेवाले ग्रह |
३ - राहू और केतु जिस राशी में हो उनके स्वमि ग्रह और जिस नक्षत्र में हो - उनके नक्षत्र
स्वामी के ग्रह |
दशा — केवल विमशोत्तरी दशा का ही उपयोग किया जाता है |
गोचर - एस पध्धति में सभी ग्रहों के गोचर का अध्ययन उनके नक्षत्र स्वामी और उप- नक्षत्र
स्वामी की स्थिति के अनुसार - लग्न से किया जाता है न की चन्द्रमा की राशी से |
के. पी . में साडेसाती , अष्टकवर्ग , गुरु बल , अष्टम चन्द्र आदि का उपयोग नहीं
किया जाता है |
योग — के. पी में पुनर्भू योग के अतिरिक्त अन्य किसी भी योग का उपयोग नहीं किया जाता है |
वर्ग कुंडलियाँ - की. पी. में नवमांश , होरा ,त्रिशाश आदि का उपयोग नहीं किया जाता है |
प्रश्न कुंडली - के . पी . में १ से २४९ तक के अंकों की प्रणाली से बनाई जाती है
मुहुर्त - जन्म कुंडली या प्रश्न कुंडली के कारक ग्रहों के अनुसार मुहूर्त निकल जाता है |

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